शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

रतन टाटा पर त्वरित टिप्पणी

 रतन टाटा नहीं रहे। हर कोई दुखी है। हमारे समय में वो पहले ऐसे उद्योगपति है जिनके निधन पर उनके टाटा समूह और टाटा संस का चेयरमैन रहते किए गए जन कल्याणकारी तथा अपने कर्मचारियों और निवेशकों के हित में उठाये गये कदमों को कृतज्ञता से याद किया जा रहा है। देश के लिए टाटा समूह द्वारा किया गया योगदान हमेशा याद रखा जाएगा । मुझे लगता है वो ऐसे अंतिम उद्योगपति भी हैं, क्योंकि अब मानवीय रिश्तों को देखने वाले उद्योगपति कहाँ हैं ? अच्छा हुआ अपने अंतिम दिनों में उन्होंने रुग्ण हो चुके इण्डियन एयरलाइंस को ख़रीदा, जिसे उनके परिवारवालों ने शुरू किया था।

आप सचमुच भारत रत्न हैं। अंतिम सलाम रतन नवल टाटा।

मंगलवार, 24 सितंबर 2024

टिप्पणी- यादों में चलती साइकिल / संपादन - यादवेन्द्र

 यादों में चलती साइकिल/ संपादन - यादवेन्द्र

साइकिल हम सब की यादों का हिस्सा रही है। समय के साथ इसकी उपयोगिता बदलती गई। हम सब साइकिल के साथ जुड़ी स्मृतियाँ लिख नहीं पाते हैं।ऐसे में जब यादवेन्द्र जी के सम्पादन में ये किताब आयी तो इसमें अलग अलग विधा के तैतालीस लोगों ने अपने जीवन में साइकिल के होने का निमित्त और उसके साथ से जीवन के बदलावों का शानदार चित्रण किया है। इसके लिए यादवेन्द्र जी साधुवाद के पात्र हैं जो अब भी साइकिल की यात्रायें पटना जैसे लापरवाह और उसठ शहर में अब भी धड़ल्ले से करते हैं।
ये किताब साइकिल की यादों के बरक़्स अपनी जीवन यात्रा के पहियों को घूमते देखने जैसा है। आज के इस प्रतिस्पर्धी और क्रूर समय में जब आशुतोष दुबे अपने संस्मरण में लिखते हैं “ साइकिल एक निहायत शरीफ वाहन है। टकरा कर अपना हैंडल टेढ़ा कर लेगी, मगर अगले को कुचलेगी नहीं।”, तो ये लगता है कि जैसे साइकिल बस छू कर निकल गई हो, बस यादों के एहसास में छोड़कर।
लंगड़ी साइकिल चलाने के ढेर सारे संस्मरण इस किताब में है। अपवाद को छोड़ दें तो हम सब लंगड़ी साइकिल, अर्थात् सीट और हैंडल के बीच अपने दाहिने हाथ को डालकर और बायें हाथ से हैंडल पकड़कर ही साइकिल चलाना सीखे हैं ।
यादवेन्द्र जी का ये संकलन एवं उसका संपादन लाजवाब है।
उम्मीद है जल्दी ही इसका दूसरा खण्ड भी सामने होगा।
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सुशील

रविवार, 22 सितंबर 2024

समीक्षा/ कहानी संग्रह 

पत्थलगड़ी / कमलेश


कमलेश भैया ने पिछले शनिवार को अपना दूसरा कहानी संग्रह पत्थलगड़ी उपहार में दिया । कल रात तक पूरा पढ़ गया था । इस संग्रह में दस कहानियाँ हैं जो हमारे समाज, समय और संघर्ष की पृष्ठभूमि में व्यवस्था, प्रचलन और सरकार पर सवाल करती हैं और उनसे सवाल भी पूछती हैं।इन कहानियों में उनका गृह जनपद बक्सर और शाहाबाद तो है ही उनकी हाल तक कार्यस्थली रही रॉची और उसके आसपास के इलाक़े ख़ासतौर पर पत्थलगड़ी आन्दोलन का केन्द्र रहे खूँटी और आसपास के इलाक़े शामिल हैं।

पहली कहानी “अघोरी” एक पत्रकार द्वारा अघोरियों और ओझाओं पर किताब लिखने के क्रम में बक्सर के सुदूर और सुनसान स्टेशन पर रात बिताने से शुरू होती है और अंत में एक परित्यक्ता मॉ के पूर्व पति से साक्षात्कार और इमोशनल नोट पर ख़त्म होती है जिसमें बहने वाले ऑसुओं के साथ सामाजिक अपवंचनाओं और स्त्रियों के तिरस्कार और उत्पीड़न का बोझ भी बहने लगता है ।

“पत्थलगड़ी” कहानी आदिवासियों के साथ हो रहे उत्पीड़न, शोषण और उसमें शामिल बाहरी लोगों, कंपनियों, हितधारकों के साथ शासन व्यवस्था की मिलीभगत के खिलाफ कई पीढ़ियों के उलगुलान को दिखाती है। अपने जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिये आलसाराम, बिसराम बेदिया और सोगराम का प्रयत्न तीन पीढ़ियों से चल रहे आदिवासी संघर्ष का दस्तावेज है जिसे कथाकार ने हमारे सामने प्रस्तुत किया है।

तीसरी कहानी “बाबा साहब की बाँह” है जिसमें दलित और शोषित वर्गों के संघर्ष और उनके राजनीतिक उत्कंठाओं की कहानी है। राजनीतिक मुलम्मे में सराबोर समाज के अलग-अलग वर्गों के चेतन प्यासों और संघर्ष का इस कहानी में भरपूर दस्तावेज़ीकरण है।

“खिड़की” कहानी में सुभरन मुंडा के बरक्स आदिवासी अस्मिता, संघर्ष और इंतक़ाम को दिखाया गया है और पुलिसिया दमन के साथ नायक की चल रही इटरनल प्रेम कहानी को दिखाया गया है।

“लाल कोट” में पारिवारिक रिश्तों के टूटने और विवाहेत्तर संबंधों के कारण मानसिक संत्रास का चित्रण है। कथाकार अपनी बात सरल तरीक़े से रोमानियत के पुट के साथ कह जाते हैं और प्रौढ़ प्रेम के मसले को बड़े ही साहसिक ढंग से उठाते हैं। 

“प्रेम अगिन में” एलजीबीटी के मुद्दे पर लिखी गयी एक साहसिक कहानी है जिसमें सामाजिक सच्चाई, मनुष्य की व्यक्तिगत इच्छाओं और कुंठाओं के साथ साथ सामासिक जड़ता और जातीय प्रभुत्ववाद को दर्शाया गया है।

इस संग्रह की सबसे सशक्त कहानियों में से एक है “बोक्का”।कम्युनिस्ट और नेता के जातीय चाशनी से सराबोर चरित्र का चित्रण इस कहानी में है। और वर्ग संघर्ष के नारों और जातीय बंधनों के चक्की में पिसे एक प्रेम कथा है। गीता और कालिका के बरक्स भेदभाव और ग़ैर बराबरी के यथार्थवादी परिस्थितियों पर केंद्रित ये कहानी हमारे आसपास की कहानी लगती है जिसपर कुछ कम्युनिस्ट साथी असहमति जता सकते हैं।

आख़िरी तीन कहानियाँ “क़र्ज़”, “रिज़ल्ट” और “भाई” मानव जीवन के क्रमशः आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक/जातीय संबंधों और संकटों की पृष्ठभूमि में लिखी गयी हैं। क़र्ज़ कहानी साहूकार के क़र्ज़ से दबे एक ऐसे सीमांत किसान की कहानी है जो उस क़र्ज़ से छुटकारा पाने के लिये दलाल के चंगुल में फँस जाता है और अंत में परिवार सहित आत्महत्या कर लेता है। 

रिज़ल्ट कहानी एक रिटायर्ड व्यक्ति की कहानी है जो अपनी पत्नी की मृत्यु के कई साल बाद अपने रिटायरमेंट के दो साल कवल दूसरी शादी कर लेता है। इसपर नाराज़ होकर उसका बेटा और बहू घर छोड़कर चले जाते हैं और संबंध तोड़ लेते हैं। ऐसे में वो अपने पोते के दसवीं के रिज़ल्ट का पता लगाने के लिये ख़ाक छानता है लेकिन उसका अंक पता नहीं कर पाता है और बस इस बात की मिठाई बँटवाता है कि उस स्कूल में ना तो कोई बच्चा फेल हुआ है और ना दूसरी श्रेणी में पास हुआ है।

अंतिम कहानी “भाई” एक पोस्टमास्टर की ट्रेजेडी है जो जातीय दंश झेलने पर मजबूर है।जिसका छोटा भाई जिसे वो बेइंतिहा प्यार करता था, नक्सली करार देकर एनकाउण्टर में मार दिया जाता है।

कुल मिलाकर शिल्प, कथ्य और संप्रेषण की दृष्टि से एक ज़रूरी पढ़ी जाने वाली किताब और उनके पहले संग्रह “दक्खिन टोला” का विस्तार करने वाली किताब है जो कमलेश जी को आज के दौर का एक महत्वपूर्ण कथाकार बनाती है, जिनपर शायद कम बात की गयी है।

मंगलवार, 9 मार्च 2021

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

बहुत दिन हो गए मैं ब्लॉग पर नहीं आ पाया। दरअसल ये अनुपस्थिति एक नए पहल का पूर्वाभ्यास है। अपने आसपास तेजी से घटित हो रही घटनाओं को समझने में लगा हूँ। समझ रहा हूँ की अरहर की दाल ९५ रुपए हो गयी तो फिर शेयर क्यों बढ़ रहा है और मुद्रास्फीति क्यों कम हो रही है। एक महानुभाव की रिपोर्ट आयी है कि देश में हर १० में से चौथा आदमी गरीब है और ये भी कि सत्रह साल बाद किसी को दोषी तो ठहरा दिया जाता है लेकिन उसे कोई सज़ा नहीं मिलेगी।
ये सब इन्ही पांच छह महीनो में हुआ है । इसी देश में।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

बिहार में आजकल एक नयी बयार चली है, राज्य और राज्य के बासिंदों को गरीब बताने, बनांने की; सरकार पिछले तीन साल से बीपीएल के दायरे में आने वाले लोगों की लिस्ट बनांने में लगी है; एक लिस्ट १ करोड़ १२ लाख परिवारों की प्रकाशित हो चुकी है लेकिन इसमे शहरों में रहने वाले लोगों की गिनती शामिल नहीं है : इस लिस्ट पर करीब एक करोड़ आपत्तियां आ चुकी हैं जिन्हें स्क्रूटिनी का काम चल रहा है; उम्मीद है बीस से पच्चीस लाख परिवार और बीपीएल के नीचेआ जायेंगे; फिर शहरों में भी १५-२० लाख गरीब तो सरकार निकाल ही लेगी;

हिसाब जोड़ा आपने; जी हाँ ये गिनती डेढ़ करोड़ परिवारों पर जाकर ख़त्म होगी; मतलब बिहार में सात करोड़ पचास लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले होंगे; यानी १० करोड़ आबादी के पचहत्तर फीसदी लोग;

ये संख्या एक फेल्ड हो रहे स्टेट की कहानी कहती है, सुशासन के दौर के विकासोन्मुखी राज्य और राजा की तो कतई नही,

अभी और भी कई तथ्य आपके लिए हैं; बस visit करें

सोमवार, 6 जुलाई 2009

बजट के बहाने
सबसे पहले देश के नए बजट, मानसून और आम आदमी की बात। कौटिल्य से महात्मा गाँधी तक, आख़िर हमारे वित्तमंत्री किसके रास्ते देश के लोगों का जीवन ले जाना चाहते हैं। दो दिन पहले रेल मंत्री का बजट आता है - १५०० से कम कमाने वाले २५ रुपये में १००० किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं, फिर आज वित्तमंत्री घोषणा करते हैं एलसीडी के दाम २००० रुपये कम हो गए। देश की सरकार के दो मंत्री - दो धाराएं - एक का नारा रोजाना ५० रुपये से कम कमाओ और आधे पेट १००० किलोमीटर महीने भर में घूम लो, दूसरा लॉलीपॉप दिखाता है टैक्स में तीन महीने की तनख्वाह गवाओं और घर आकर एलसीडी पर देश दुनिया की मंदी देखो, राहुल गाँधी, ममता बनर्जी और प्रणव मुखर्जी का तिलिस्म देखिये और द ग्रेट इंडियन तमाशा का मजा लीजिये; पीछे से म्यूजिक ' सब कुछ लुटा कर होश में आए तो क्या----------------
मानसून भी कुछ कुछ बजट जैसा ही आया है इस बार, कौन हंसेगा कौन रोयेगा राम जाने,,,,,,,,,,,,

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

सबलोग का पहला अंक आपके सामने है। पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया दे। कवर पेज इस मासिक पत्रिका के मिजाज़ से आपको रूबरू करा रहा है।
सुशील

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

मसौढी (पटना) में २३ से २६ दिसम्बर तक नाटक महोत्सव का आयोजन होने जा रहा है। इस आयोजन में कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम होने हैं। मसौढी पटना से २५ किलोमीटर दक्षिण बसा एक क़स्बा जिस इलाके में कई दशक से उग्रवादी घटनाएँ होती रही हैं। बहुत खून बहा है इस इलाके में। लोग अब अमन चैन चाहते हैं। पिछले साल पहली बार मंच नाटक हुआ तो लोगों की भीड़ रात ८- ८.३० तक नाटक देखने के लिए जमी रहती थी। उम्मीद है इस साल ये कारवां बढ़ता जायेगा। जागृति कला मंच के साथियों को इस आयोजन के लिए बधाई......

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

नज़्म

संजय कुमार कुंदन अलग मिजाज़ के शायर हैं। ४८ साल की उम्र में बेचैनियाँ संवेद पुस्तिका के रूप में पाठकों के सामने आयी। दोस्तों, ज्यादातर उनसे छोटे, के बीच में तो अपनी नज्में खूब सुनाते हैं लेकिन महफिल, यानि की कवि गोष्ठी में सुनाने में हिचकते हैं। २००६ में संग्रह ' एक लड़का मिलने आता है ' राजकमल ने छापा है । यारों के यार और चुटकुलों के माहिर संजय भइया आजकल थोड़े सीरियस दिखते हैं। पटना में पुस्तक मेले में मुझे अपनी ताज़ा नज़्म सुनायी। मेरे अनुरोध पर खास नयी पहल के लिए उनकी ये नज़्म -

अब असली आज़ादी आई....

बाहर आओ, बाहर आओ

घर के अन्दर मत बैठो तुम

रिश्तों की ज़ंजीर है घर में

एक मुबहम तकदीर है घर में

घर में दबी-दबी सी सिसकी

घर में लम्हों पर पाबंदी

घर में माया, घर में ममता

और मन तो है जोगी रमता

जोगी को रमता ही छोडो

पानी को बहता ही छोडो

बाहर आकर घर को देखो

कटे हुए इस पर को देखो

बाहर देखो कैसा मंज़र

देखो, देखो कितने दफ्तर

दफ्तर के अन्दर हैं साहब

एक भूरे बन्दर हैं साहब

देख, फिरंगी कहाँ गए हैं

बच्चे अपने छोड़ गए हैं

गहरी अना में डूबे बच्चे

गरचे काले-काले बच्चे

पीली बत्ती वाले बच्चे

ओहदे के मतवाले बच्चे

जिद है मुल्क का भला करेंगे

बात किसी की नहीं सुनेंगे

और इनके अमले हैं कितने

कठपुतली से हिलते डुलते

छोटे अफसर, क्लर्क, किरानी

ड्राईवर, माली कितने प्राणी

साहब को इमां का भरम है

गरचे जितना मिले वो कम है

अपनी बर्हंगी को छुपाएँ

नंगा मातहतों को कराएँ

ये मंज़र आज़ादी का है

जिसमे चुप रहने में भला है

बाहर जाकर घबराओ तुम

ये सब देख के पछताओ तुम

अब भी कितने तख्त हैं देखो

कदक्दार बोली से लार्जो

सड़क पे अब राजा आयेंगे

सब क़तर में लग जायेंगे

गाड़ी होगी शोर मचाती

चलने वालों को धमकती

पुलिस के अब डंडे बरसेंगे

हम सब दर्शन को तरसेंगे

राजाजी के कपड़े उजले

और उनके अल्फाज़ हैं प्यारे

उनके चेहरे पर चिकनाई

हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई

अब असली आज़ादी आई

अपना कॉल यही था भाई

अंग्रेजों को मार भगाया

भाई राजा बनकर आया

उसके पाऊँ हैं सर पर तो क्या

अपना हाल है बदतर तो क्या

है निजाम अंग्रेजों का ही

पर सर पर है अपना भाई

कितने अफसर उसके खातिर

और सब हर फेन में माहिर

ये सब मिलकर राज करेँगे

जो परजा परजा ही रहेंगे

nayee गुलामी में है इज्ज़त

हमको अब बहुत है राहत

बूट नहीं गोरों के सर पे

जितने मालिक सब हैं अपने

बेहतर है अब घर ही जाओ

अपनी बीबी को समझाओ

अपने बच्चों को बतलाओ

रिश्तों की ज़ंजीर है सबकुछ

meetee हुई तकदीर है सबकुछ

ये उजली जागीर है सबकुछ ।

-- संजय कुमार कुंदन

पुनश्च : कुछ टाइप और फॉण्ट के प्रॉब्लम के चलते ठीक से दो चार जगहों पर शब्द नहीं बन पायें हैं।

नया पोस्ट आपके कमेन्ट के लिए

मेरे ब्लॉग पर ये कमेन्ट आज ही किसी ने भेजा है , हुबहू आपके लिए पोस्ट कर रहा हूँ। आपको इस
लेख के बारे में पढने के बाद क्या लगता है , क्या ये एक abstract है या उससे अलग कुछ । आप जरूर लिखें।

मायूसी छोड़ोमेरे प्यारे देशभक्तों,आज तक की अपनी जीवन यात्रा में मुझे अनुभव से ये सार मिला कि देश का हर आदमी डर यानि दहशत के साये में साँस ले रहा है! देश व समाज को तबाही से बचाने के लिए मायूस होकर सभी एक दूसरे को झूठी तसल्ली दिए जा रहे हैं। खौफनाक बन चुकी आज की राजनीति को कोई भी चुनौती देने की हिम्मत नही जुटा पा रहा. सभी कुदरत के किसी करिश्मे के इंतजार में बैठे हैं. रिस्क कोई लेना नहीं चाहता. इसी कारण मैं अपने देश के सभी जागरूक, सच्चे, ईमानदार नौजवानों को हौसला देने के लिए पूरे यकीन के साथ यह दावा कर रहा हूँ कि वर्तमान समय में देश में हर क्षेत्र की बिगड़ी हुई हर तस्वीर को एक ही झटके में बदलने का कारगर फोर्मूला अथवा माकूल रास्ता इस वक्त सिर्फ़ मेरे पास ही है. मैंने अपनी 46 साल की उमर में आज तक कभी वादा नहीं किया है मैं सिर्फ़ दावा करता हूँ, जो विश्वास से पैदा होता है. इस विश्वास को हासिल करने के लिए मुझे 30 साल की बेहद दुःख भरी कठिन और बेहद खतरनाक यात्राओं से गुजरना पड़ा है. इस यात्रा में मुझे हर पल किसी अंजान देवीय शक्ति, जिसे लोग रूहानी ताकत भी कहते हैं, की भरपूर मदद मिलती रही है. इसी कारण मैंने इस अनुभव को भी प्राप्त कर लिया कि मैं सब कुछ बदल देने का दावा कर सकूँ. चूँकि ऐसे दावे करना किसी भी इन्सान के लिए असम्भव होता है, लेकिन ये भी कुदरत का सच्चा और पक्का सिधांत है की सच्चाई और मानवता के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर जो भी भगवान का सच्चा सहारा पकड़ लेता है वो कुछ भी और कैसा भी, असंभव भी सम्भव कर सकता है. ऐसी घटनाओं को ही लोग चमत्कार का नाम दे देते हैं. इस मुकाम तक पहुँचने के लिए, पहली और आखिरी एक ही शर्त होती है वो है 100% सच्चाई, 100% इंसानियत, 100% देशप्रेम व 100% बहादुरी यानि मौत का डर ख़त्म होना. यह सब भी बहुत आसान है . सिर्फ़ अपनी सोच से स्वार्थ को हटाकर परोपकार को बिठाना. बस इतने भर से ही कोई भी इन्सान जो चाहे कर सकता है. रोज नए चमत्कार भी गढ़ सकता है क्योंकि इंसान फ़िर केवल माध्यम ही रह जाता है, और करने वाला तो सिर्फ़ परमात्मा ही होता है. भगवान की कृपा से अब तक के प्राप्त अनुभव के बलबूते पर एक ऐसा अद्भुत प्रयोग जल्दी ही करने जा रहा हूँ, जो इतिहास के किसी पन्ने पर आज तक दर्ज नहीं हो पाया है. ऐसे ऐतिहासिक दावे पहले भी सिर्फ़ बेहतरीन लोगों द्वारा ही किए जाते रहे हैं. मैं भी बेहतरीन हूँ इसीलिए इतना बड़ा दावा करने की हिम्मत रखता हूँ. प्रभु कृपा से मैंने समाज के किसी भी क्षेत्र की हर बर्बाद व जर्जर तस्वीर को भलीभांति व्यवहारिक अनुभव द्वारा जान लिया है. व साथ- साथ उसमें नया रंग-रूप भरने का तरीका भी खोज लिया है. मैंने राजनीति के उस अध्याय को भी खोज लिया है जिस तक ख़ुद को राजनीति का भीष्म पितामह समझने वाले परिपक्व बहुत बड़े तजुर्बेकार नेताओं में पहुँचने की औकात तक नहीं है. मैं दावा करता हूँ की सिर्फ़ एक बहस से सब कुछ बदल दूंगा. मेरा प्रश्न भी सब कुछ बदलने की क्षमता रखता है. और रही बात अन्य तरीकों की तो मेरा विचार जनता में वो तूफान पैदा कर सकता है जिसे रोकने का अब तक किसी विज्ञान ने भी कोई फार्मूला नही तलाश पाया है. सन 1945 से आज तक किसी ने भी मेरे जैसे विचार को समाज में पेश करने की कोशिश तक नहीं की. इसकी वजह केवल एक ही खोज पाया हूँ कि मौजूदा सत्ता तंत्र बहुत खौफनाक, अत्याचारी , अन्यायी और सभी प्रकार की ताकतों से लैस है. इतनी बड़ी ताकत को खदेड़ने के लिए मेरा विशेष खोजी फार्मूला ही कारगर होगा. क्योंकि परमात्मा की ऐसी ही मर्जी है. प्रभु कृपा से मेरे पास हर सवाल का माकूल जबाब तो है ही बल्कि उसे लागू कराने की क्षमता भी है. { सच्चे साधू, संत, पीर, फ़कीर, गुरु, जो कि देवता और फ़रिश्ते जैसे होते हैं को छोड़ कर} देश व समाज, इंसानियत, धर्मं व इन्साफ से जुड़े किसी भी मुद्दे पर, किसी से भी, कहीं भी हल निकलने की हद तक निर्विवाद सभी उसूल और सिधांत व नीतियों के साथ कारगर बहस के लिए पूरी तरह तैयार हूँ. खास तौर पर उन लोगों के साथ जो पूरे समाज में बहरूपिये बनकर धर्म के बड़े-बड़े शोरूम चला रहे हैं. अंत में अफ़सोस और दुःख के साथ ऐसे अति प्रतिष्ठित ख्याति प्राप्त विशेष हैसियत रखने वाले समाज के विभिन्न क्षेत्र के महान लोगों से व्यक्तिगत भेंट के बाद यह सिद्ध हुआ कि जो चेहरे अखबार, मैगजीन, टीवी, बड़ी-बड़ी सेमिनार और बड़े-बड़े जन समुदाय को मंचों से भाषण व नसीहत देते हुए नजर आ रहे हैं व धर्म की दुकानों से समाज सुधार व देश सेवा के लिए बड़ी-बड़ी कुर्बानियों की बात करने वाले धर्म के ठेकेदार, जो शेरों की तरह दहाड़ते हैं, लगभग 99% लोगों ने बात पूरी होने से पहले ही ख़ुद को चूहों की कौम में परिवर्तित कर लिया. समस्या के समाधान तक पहुँचने से पहले ही इन लोगों ने मज़बूरी में, स्वार्थ में या कायरपन से अथवा मूर्खतावश डर के कारण स्पष्ट समाधान सुझाने के बाद भी राजनैतिक दहशत के कारण पूरी तरह समर्पण कर दिया. यानि हाथी के खाने और दिखने वाले दांत की तरह. मैं हिंदुस्तान की 125 करोड़ भीड़ में एक साधारण हैसियत का आम आदमी हूँ, जिसकी किसी भी क्षेत्र में कहीं भी आज तक कोई पहचान नहीं है, और आज तक मेरी यही कोशिश रही है की कोई मुझे न पहचाने. जैसा कि अक्सर होता है. मैं आज भी शायद आपसे रूबरू नहीं होता, लेकिन कुदरत की मर्जी से ऐसा भी हुआ है. चूँकि मैं नीति व सिधांत के तहत अपने विचारों के पिटारे के साथ एक ही दिन में एक ही बार में 125 करोड़ लोगों से ख़ुद को बहुत जल्द परिचित कराऊँगा.उसी दिन से इस देश का सब कुछ बदल जाएगा यानि सब कुछ ठीक हो जाएगा. चूँकि बात ज्यादा आगे बढ़ रही है इसलिए मैं अपना केवल इतना ही परिचय दे सकता हूँ कि मेरा अन्तिम लक्ष्य देश के लिए ही जीना और मरना है. फ़िर भी कोई भी , लेकिन सच्चा व्यक्ति मुझसे व्यक्तिगत मिलना चाहे तो मुझे खुशी ही होगी॥ आपना फ़ोन नम्बर और अपना विचार व उद्देश्य mail पर जरुर बताये, मिलने से पहले ये जरुर सोच लें कि मेरे आदर्श , मार्गदर्शक अमर सपूत भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, लाला लाजपत राए सरीखे सच्चे देश भक्त हैं. गाँधी दर्शन में मेरा 0% भी यकीन नहीं हैं. एक बार फ़िर सभी को यकीन दिला रहा हूँ की हर ताले की मास्टर चाबी मेरे पास है, बस थोड़ा सा इंतजार और करें व भगवान पर विश्वास रखें. बहुत जल्द सब कुछ ठीक कर दूंगा. अगर हो सके तो आप मेरी केवल इतनी मदद करें कि परमात्मा से दुआ करें कि शैतानों की नजर से मेरे बच्चे महफूज रहें.मुझे अपने अनुभवों पर फक्र है, मैं सब कुछ बदल दूंगा. क्योंकि मैं बेहतरीन हूँ. आपका सच्चा हमदर्द (बेनाम हिन्दुस्तानी) e-mail- ajadhind.11@gmail.com

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

पटना में पुस्तक मेला
पटना में दो पुस्तक मेलें लगे हैं। एक एनबीटी का और दूसरा क्षेत्रीय पत्रकार संघ द्वारा लगाया गया है। पटना में इस साल तीन मेले लग रहे हैं। अभी चल रहे दो मेले हर साल लगने वाले पटना पुस्तक मेले से अलग हैं। मोनोपोली ख़त्म हुई है। प्रकाशकों को कम दाम में स्टाल मिले हैं और ज्यादा पब्लिशर्स भी आयें हैं । दिन भर दोनों मेलों में साहित्यिक कार्यक्रम चलते रहते हैं । पटना में ये दोनों मेले १६ नवम्बर तक चलेंगे । पुस्तक मेले के बारे में कोई भी रपट , फोटो या लेखकों का इंटरव्यू इस ब्लॉग पर पोस्ट कर सकते हैं।
सुशील, नईपहलबिहार

रविवार, 2 नवंबर 2008

बिहार की बात

बिहार में एक उत्तेजना है, गुस्सा है, प्रतिशोध की भावना है। आख़िर ये सब क्यों है? क्या एक राज ठाकरे की वजह से ? क्या आज के पहले हम बिहारियों के लिए सब कुछ ठीक था ? जवाब हमेशा यही होगा कि यह सब आजादी के बाद से लगातार देश के इस हिस्से के विकास के दौर में पिछरते जाने से पैदा हुई बेकारी, भुखमरी, और गरीबी का विस्फोट है जिसमे राज ठाकरे जैसे लोगों ने बस पतीला लगा दिया है। आज भी आपके हर गांव कसबे के मुहाने, नुक्कड़ पर लोग तास खेलते, गप्प लड़ाते मिल जायेंगे। जब काम करने का वक्त होता है, ये दालान में बैठकर समय काटते है। आख़िर कौन इन्हे यहाँ तक ले आया? हाल में महाराष्ट्र और फिर बिहार में हुई हिंसा के शिकार और गुस्से में तोड़फोड़ करते लोग और विशेषकर युवा यही लोग हैं जो राज्य के कर्णधारो के वोट गणित में उलझे हुए हैं।

क्या इस आबादी का गुस्सा जायज nahin है ? क्या इसे अपना हक नहीं मिलना चाहिए ? आपकी प्रतिक्रियाओं का हमें इंतज़ार....

शनिवार, 1 नवंबर 2008

नई पहल की शुरुआत

आप सभी को नमस्कार. नई पहल में हमारी कोशिश आपसे अपनी बातें कहने की आपकी बातें सुनाने की और समाज के अपने जैसी समझ वाले लोगों के साथ चलने की है। बिहार के समाज और संस्कृति का साझा कर नई पहल करने की है। आप सभी का हम अपने ब्लॉग में स्वागत करते हैं । आपकी टिप्पणियों विचार और बहस का हमें अपने ब्लॉग में इंतज़ार रहेगा। धन्यवाद्
सुशील, पटना से