शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

रतन टाटा पर त्वरित टिप्पणी

 रतन टाटा नहीं रहे। हर कोई दुखी है। हमारे समय में वो पहले ऐसे उद्योगपति है जिनके निधन पर उनके टाटा समूह और टाटा संस का चेयरमैन रहते किए गए जन कल्याणकारी तथा अपने कर्मचारियों और निवेशकों के हित में उठाये गये कदमों को कृतज्ञता से याद किया जा रहा है। देश के लिए टाटा समूह द्वारा किया गया योगदान हमेशा याद रखा जाएगा । मुझे लगता है वो ऐसे अंतिम उद्योगपति भी हैं, क्योंकि अब मानवीय रिश्तों को देखने वाले उद्योगपति कहाँ हैं ? अच्छा हुआ अपने अंतिम दिनों में उन्होंने रुग्ण हो चुके इण्डियन एयरलाइंस को ख़रीदा, जिसे उनके परिवारवालों ने शुरू किया था।

आप सचमुच भारत रत्न हैं। अंतिम सलाम रतन नवल टाटा।

मंगलवार, 24 सितंबर 2024

टिप्पणी- यादों में चलती साइकिल / संपादन - यादवेन्द्र

 यादों में चलती साइकिल/ संपादन - यादवेन्द्र

साइकिल हम सब की यादों का हिस्सा रही है। समय के साथ इसकी उपयोगिता बदलती गई। हम सब साइकिल के साथ जुड़ी स्मृतियाँ लिख नहीं पाते हैं।ऐसे में जब यादवेन्द्र जी के सम्पादन में ये किताब आयी तो इसमें अलग अलग विधा के तैतालीस लोगों ने अपने जीवन में साइकिल के होने का निमित्त और उसके साथ से जीवन के बदलावों का शानदार चित्रण किया है। इसके लिए यादवेन्द्र जी साधुवाद के पात्र हैं जो अब भी साइकिल की यात्रायें पटना जैसे लापरवाह और उसठ शहर में अब भी धड़ल्ले से करते हैं।
ये किताब साइकिल की यादों के बरक़्स अपनी जीवन यात्रा के पहियों को घूमते देखने जैसा है। आज के इस प्रतिस्पर्धी और क्रूर समय में जब आशुतोष दुबे अपने संस्मरण में लिखते हैं “ साइकिल एक निहायत शरीफ वाहन है। टकरा कर अपना हैंडल टेढ़ा कर लेगी, मगर अगले को कुचलेगी नहीं।”, तो ये लगता है कि जैसे साइकिल बस छू कर निकल गई हो, बस यादों के एहसास में छोड़कर।
लंगड़ी साइकिल चलाने के ढेर सारे संस्मरण इस किताब में है। अपवाद को छोड़ दें तो हम सब लंगड़ी साइकिल, अर्थात् सीट और हैंडल के बीच अपने दाहिने हाथ को डालकर और बायें हाथ से हैंडल पकड़कर ही साइकिल चलाना सीखे हैं ।
यादवेन्द्र जी का ये संकलन एवं उसका संपादन लाजवाब है।
उम्मीद है जल्दी ही इसका दूसरा खण्ड भी सामने होगा।
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सुशील

रविवार, 22 सितंबर 2024

समीक्षा/ कहानी संग्रह 

पत्थलगड़ी / कमलेश


कमलेश भैया ने पिछले शनिवार को अपना दूसरा कहानी संग्रह पत्थलगड़ी उपहार में दिया । कल रात तक पूरा पढ़ गया था । इस संग्रह में दस कहानियाँ हैं जो हमारे समाज, समय और संघर्ष की पृष्ठभूमि में व्यवस्था, प्रचलन और सरकार पर सवाल करती हैं और उनसे सवाल भी पूछती हैं।इन कहानियों में उनका गृह जनपद बक्सर और शाहाबाद तो है ही उनकी हाल तक कार्यस्थली रही रॉची और उसके आसपास के इलाक़े ख़ासतौर पर पत्थलगड़ी आन्दोलन का केन्द्र रहे खूँटी और आसपास के इलाक़े शामिल हैं।

पहली कहानी “अघोरी” एक पत्रकार द्वारा अघोरियों और ओझाओं पर किताब लिखने के क्रम में बक्सर के सुदूर और सुनसान स्टेशन पर रात बिताने से शुरू होती है और अंत में एक परित्यक्ता मॉ के पूर्व पति से साक्षात्कार और इमोशनल नोट पर ख़त्म होती है जिसमें बहने वाले ऑसुओं के साथ सामाजिक अपवंचनाओं और स्त्रियों के तिरस्कार और उत्पीड़न का बोझ भी बहने लगता है ।

“पत्थलगड़ी” कहानी आदिवासियों के साथ हो रहे उत्पीड़न, शोषण और उसमें शामिल बाहरी लोगों, कंपनियों, हितधारकों के साथ शासन व्यवस्था की मिलीभगत के खिलाफ कई पीढ़ियों के उलगुलान को दिखाती है। अपने जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिये आलसाराम, बिसराम बेदिया और सोगराम का प्रयत्न तीन पीढ़ियों से चल रहे आदिवासी संघर्ष का दस्तावेज है जिसे कथाकार ने हमारे सामने प्रस्तुत किया है।

तीसरी कहानी “बाबा साहब की बाँह” है जिसमें दलित और शोषित वर्गों के संघर्ष और उनके राजनीतिक उत्कंठाओं की कहानी है। राजनीतिक मुलम्मे में सराबोर समाज के अलग-अलग वर्गों के चेतन प्यासों और संघर्ष का इस कहानी में भरपूर दस्तावेज़ीकरण है।

“खिड़की” कहानी में सुभरन मुंडा के बरक्स आदिवासी अस्मिता, संघर्ष और इंतक़ाम को दिखाया गया है और पुलिसिया दमन के साथ नायक की चल रही इटरनल प्रेम कहानी को दिखाया गया है।

“लाल कोट” में पारिवारिक रिश्तों के टूटने और विवाहेत्तर संबंधों के कारण मानसिक संत्रास का चित्रण है। कथाकार अपनी बात सरल तरीक़े से रोमानियत के पुट के साथ कह जाते हैं और प्रौढ़ प्रेम के मसले को बड़े ही साहसिक ढंग से उठाते हैं। 

“प्रेम अगिन में” एलजीबीटी के मुद्दे पर लिखी गयी एक साहसिक कहानी है जिसमें सामाजिक सच्चाई, मनुष्य की व्यक्तिगत इच्छाओं और कुंठाओं के साथ साथ सामासिक जड़ता और जातीय प्रभुत्ववाद को दर्शाया गया है।

इस संग्रह की सबसे सशक्त कहानियों में से एक है “बोक्का”।कम्युनिस्ट और नेता के जातीय चाशनी से सराबोर चरित्र का चित्रण इस कहानी में है। और वर्ग संघर्ष के नारों और जातीय बंधनों के चक्की में पिसे एक प्रेम कथा है। गीता और कालिका के बरक्स भेदभाव और ग़ैर बराबरी के यथार्थवादी परिस्थितियों पर केंद्रित ये कहानी हमारे आसपास की कहानी लगती है जिसपर कुछ कम्युनिस्ट साथी असहमति जता सकते हैं।

आख़िरी तीन कहानियाँ “क़र्ज़”, “रिज़ल्ट” और “भाई” मानव जीवन के क्रमशः आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक/जातीय संबंधों और संकटों की पृष्ठभूमि में लिखी गयी हैं। क़र्ज़ कहानी साहूकार के क़र्ज़ से दबे एक ऐसे सीमांत किसान की कहानी है जो उस क़र्ज़ से छुटकारा पाने के लिये दलाल के चंगुल में फँस जाता है और अंत में परिवार सहित आत्महत्या कर लेता है। 

रिज़ल्ट कहानी एक रिटायर्ड व्यक्ति की कहानी है जो अपनी पत्नी की मृत्यु के कई साल बाद अपने रिटायरमेंट के दो साल कवल दूसरी शादी कर लेता है। इसपर नाराज़ होकर उसका बेटा और बहू घर छोड़कर चले जाते हैं और संबंध तोड़ लेते हैं। ऐसे में वो अपने पोते के दसवीं के रिज़ल्ट का पता लगाने के लिये ख़ाक छानता है लेकिन उसका अंक पता नहीं कर पाता है और बस इस बात की मिठाई बँटवाता है कि उस स्कूल में ना तो कोई बच्चा फेल हुआ है और ना दूसरी श्रेणी में पास हुआ है।

अंतिम कहानी “भाई” एक पोस्टमास्टर की ट्रेजेडी है जो जातीय दंश झेलने पर मजबूर है।जिसका छोटा भाई जिसे वो बेइंतिहा प्यार करता था, नक्सली करार देकर एनकाउण्टर में मार दिया जाता है।

कुल मिलाकर शिल्प, कथ्य और संप्रेषण की दृष्टि से एक ज़रूरी पढ़ी जाने वाली किताब और उनके पहले संग्रह “दक्खिन टोला” का विस्तार करने वाली किताब है जो कमलेश जी को आज के दौर का एक महत्वपूर्ण कथाकार बनाती है, जिनपर शायद कम बात की गयी है।