गुरुवार, 20 नवंबर 2008

नज़्म

संजय कुमार कुंदन अलग मिजाज़ के शायर हैं। ४८ साल की उम्र में बेचैनियाँ संवेद पुस्तिका के रूप में पाठकों के सामने आयी। दोस्तों, ज्यादातर उनसे छोटे, के बीच में तो अपनी नज्में खूब सुनाते हैं लेकिन महफिल, यानि की कवि गोष्ठी में सुनाने में हिचकते हैं। २००६ में संग्रह ' एक लड़का मिलने आता है ' राजकमल ने छापा है । यारों के यार और चुटकुलों के माहिर संजय भइया आजकल थोड़े सीरियस दिखते हैं। पटना में पुस्तक मेले में मुझे अपनी ताज़ा नज़्म सुनायी। मेरे अनुरोध पर खास नयी पहल के लिए उनकी ये नज़्म -

अब असली आज़ादी आई....

बाहर आओ, बाहर आओ

घर के अन्दर मत बैठो तुम

रिश्तों की ज़ंजीर है घर में

एक मुबहम तकदीर है घर में

घर में दबी-दबी सी सिसकी

घर में लम्हों पर पाबंदी

घर में माया, घर में ममता

और मन तो है जोगी रमता

जोगी को रमता ही छोडो

पानी को बहता ही छोडो

बाहर आकर घर को देखो

कटे हुए इस पर को देखो

बाहर देखो कैसा मंज़र

देखो, देखो कितने दफ्तर

दफ्तर के अन्दर हैं साहब

एक भूरे बन्दर हैं साहब

देख, फिरंगी कहाँ गए हैं

बच्चे अपने छोड़ गए हैं

गहरी अना में डूबे बच्चे

गरचे काले-काले बच्चे

पीली बत्ती वाले बच्चे

ओहदे के मतवाले बच्चे

जिद है मुल्क का भला करेंगे

बात किसी की नहीं सुनेंगे

और इनके अमले हैं कितने

कठपुतली से हिलते डुलते

छोटे अफसर, क्लर्क, किरानी

ड्राईवर, माली कितने प्राणी

साहब को इमां का भरम है

गरचे जितना मिले वो कम है

अपनी बर्हंगी को छुपाएँ

नंगा मातहतों को कराएँ

ये मंज़र आज़ादी का है

जिसमे चुप रहने में भला है

बाहर जाकर घबराओ तुम

ये सब देख के पछताओ तुम

अब भी कितने तख्त हैं देखो

कदक्दार बोली से लार्जो

सड़क पे अब राजा आयेंगे

सब क़तर में लग जायेंगे

गाड़ी होगी शोर मचाती

चलने वालों को धमकती

पुलिस के अब डंडे बरसेंगे

हम सब दर्शन को तरसेंगे

राजाजी के कपड़े उजले

और उनके अल्फाज़ हैं प्यारे

उनके चेहरे पर चिकनाई

हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई

अब असली आज़ादी आई

अपना कॉल यही था भाई

अंग्रेजों को मार भगाया

भाई राजा बनकर आया

उसके पाऊँ हैं सर पर तो क्या

अपना हाल है बदतर तो क्या

है निजाम अंग्रेजों का ही

पर सर पर है अपना भाई

कितने अफसर उसके खातिर

और सब हर फेन में माहिर

ये सब मिलकर राज करेँगे

जो परजा परजा ही रहेंगे

nayee गुलामी में है इज्ज़त

हमको अब बहुत है राहत

बूट नहीं गोरों के सर पे

जितने मालिक सब हैं अपने

बेहतर है अब घर ही जाओ

अपनी बीबी को समझाओ

अपने बच्चों को बतलाओ

रिश्तों की ज़ंजीर है सबकुछ

meetee हुई तकदीर है सबकुछ

ये उजली जागीर है सबकुछ ।

-- संजय कुमार कुंदन

पुनश्च : कुछ टाइप और फॉण्ट के प्रॉब्लम के चलते ठीक से दो चार जगहों पर शब्द नहीं बन पायें हैं।

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